नवमः पाठः
सूक्तयः
अयं पाठः मूलतः तमिलभाषायाः “तिरुक्कुील्” नामकग्रन्थात् गृहीतः अस्ति। अयं ग्रन्थः तमिलभाषायाः वेदः इति कथ्यते। अस्य प्रणेता तिरुवल्लुवरः वर्तते। प्रथमशताब्दी अस्य कालः स्वीकृतः अस्ति। धर्मार्थ-कामप्रतिपादकोऽयं ग्रन्थः त्रिषु भागेषु विभक्तोऽस्ति। तिरुशब्दः श्रीवाचकः अस्ति, अतः तिरुक्कुरलशब्दस्य अभिप्रायो भवति – श्रिया युक्ता वाणी। अस्मिन् ग्रन्थे मानवानां कृते जीवनोपयोगि सत्यं सरसबोध- गम्यपद्यैः प्रतिपादितम् अस्ति।
पाठ परिचय :- यहाँ संग्रहीत श्लोक मूलरूप से तमिल भाषा में रचित ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से लिए गए हैं। तिरुक्कुरल साहित्य की उत्कृष्ट रचना है। इसे तमिल भाषा का ‘वेद’ माना जाता है। इसके प्रणेता तिरुवल्लुवर हैं। इनका काल प्रथम शताब्दी माना गया है। इसमें मानवजाति के लिए जीवनोपयोगी सत्य प्रतिपादित है । ‘तिरु’ शब्द ‘ श्रीवाचक’ है। ‘तिरुक्कुरल’ शब्द का अभिप्राय है- श्रिया युक्त वाणी। इसे धर्म, अर्थ, काम- तीन भागों में बाँटा गया है। प्रस्तुत श्लोक सरस, सरल भाषायुक्त तथा प्रेरणाप्रद हैं।
पिता यच्छति पुत्राय बाल्ये विद्याध्नं महत्।
पिताऽस्य विंफ तपस्तेपे इत्युक्तिस्तत्कृतज्ञता।।1।।
प्रसङ्ग- प्रस्तुत श्लोक संस्कृत की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भाग: ‘ में संकलित पाठ ‘सूक्तयः’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस श्लोक में पुत्र के प्रति पिता के कर्त्तव्य एवं पिता के प्रति पुत्र की कृतज्ञता का वर्णन किया गया है।
व्याख्या- पिता पुत्र के लिए बाल्यावस्था में विद्या रूपी महान धन देता है। इस पिता ने (पुत्र के लिए) कौन-सी तपस्या की, यह कथन ही उसकी पिता के प्रति कृतज्ञता है ।
भावार्थ- प्रत्येक पिता अपनी संतान की शिक्षा-दीक्षा के लिए अत्यधिक प्रयास करता है। इसके लिए उसे अनेक कष्ट भी उठाने पड़ते हैं। वास्तव में अपने पुत्र की शिक्षा-दीक्षा के लिए पिता मानो तपस्या करता है । पुत्र का यह कहना कि मेरे पिता की तपस्या का ही फल है कि मैं जीवन में उन्नति कर रहा हूँ, यही एक पुत्र का अपने पिता के प्रति आभार प्रदर्शन है।
अवक्रता यथा चित्ते तथा वाचि भवेद् यदि।
तदेवाहुः महात्मानः समत्वमिति तथ्यतः।।2।।
प्रसङ्ग- प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तयः’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस श्लोक में चित्त एवं वाणी की एकरूपता को वर्णित किया गया है।
व्याख्या- जैसी सरलता चित्त में होती है, वैसी ही (सरलता) यदि वाणी में हो जाए तो वास्तव में इसे ही महापुरुष समता कहते हैं।
भावार्थ- भाव यह है कि अगर मनुष्य अपने मन में मधुरता, सरलता एवं कोमलता का भाव रखते हुए वैसी ही वाणी बोलना शुरु कर देता है तो महापुरुषों की दृष्टि में इसे ही समता कहा जाता है।
त्यक्त्वा धर्मप्रदां वाचं परषां योऽभ्युदीरयेत्।
परित्यज्य फलं पक्वं भुड्क्तेऽपक्वं विमूढधी ।।3।।
प्रसङ्ग- प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भाग : ‘ में संकलित पाठ ‘सूक्तयः’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस श्लोक में बताया गया है कि हमें सदैव धर्म के अनुकूल वाणी बोलनी चाहिए।
व्याख्या – जो (मनुष्य) धर्म प्रदान करने वाली वाणी को छोड़कर कठोर वाणी बोलना चाहता है, वह अज्ञानी पके हुए फल को त्यागकर बिना पके हुए (कच्चे) फल का उपभोग करता है।
भावार्थ – धर्म प्रदान करने वाली वाणी पके हुए फल के समान होती है। जिस प्रकार पका हुआ फल स्वादिष्ट लगता है, उसी प्रकार धर्मानुकूल वाणी भी सुनने में अच्छी लगती है । इसलिए जो व्यक्ति धर्मानुकूल वाणी नहीं बोलता, वह अज्ञानी एवं नासमझ है।
विद्वांस एव लोकेऽस्मिन् चक्षुष्मन्तः प्रकीर्तिताः।
अन्येषां वदने ये तु ते चक्षुर्नामनी मते ।।4।।
प्रसङ्ग- प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तयः’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस श्लोक में शास्त्र ज्ञान को ही मनुष्य की वास्तविक आँखें बताया गया है।
व्याख्या- इस संसार में विद्वान व्यक्ति ही नेत्रों से युक्त पुरुषों के रूप में स्वीकार किए गए हैं। दूसरों के मुख पर जो आँखें हैं, वे तो सिर्फ नाम की (आँखें) मानी गई हैं।
भावार्थ- आँखों का कार्य है अच्छी या बुरी चीजों को देखना । विद्वान लोग अपने शास्त्र ज्ञान से अच्छे-बुरे की परख करने में समर्थ होते हैं। इसलिए कहा गया है कि वास्तविक आँखें तो शास्त्र ज्ञान हैं। मुख पर जो आँखें हैं वे तो केवल नाम मात्र की हैं।
यत् प्रोक्तं येन वेफनापि तस्य तत्त्वार्थनिर्णयः।
कर्तु शक्यो भवेद्येन स विवेक इतीरितः।।5।।
प्रसङ्ग- प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तयः’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस श्लोक में ‘विवेक’ शब्द को परिभाषित किया गया है।
व्याख्या- जिस किसी के द्वारा जो भी कहा गया है, उसके वास्तविक अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा किया जा सकता है, वह ‘विवेक’ है, ऐसा कहा गया है।
भावार्थ- किसी विषय पर व्यक्ति द्वारा सोच-समझकर जो कुछ कहा जाता है, वही उसका वास्तविक निर्णय होता है। अच्छे-बुरे या सही-गलत का निर्णय करने की क्षमता को ही ‘विवेक’ कहा जाता है।
वाक्पटुधैर्यवान् मन्त्री सभायामप्यकातरः।
स केनापि प्रकारेण परैर्न परिभूयते ।।6।।
प्रसङ्ग- प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तयः’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस श्लोक में एक कुशल मंत्री के गुणों के बारे में बताया गया है।
व्याख्या- जो मंत्री बोलने में निपुण, धैर्य धारण करने वाला तथा सभा में निर्भीक रहने वाला है, वह दूसरों (शत्रुओं) के द्वारा किसी भी तरह से अपमानित ( पराजित ) नहीं होता ।
भावार्थ – धैर्य रखना एवं सभा में निडरता से एवं वाणी की कुशलता के साथ अपने विचार रखना एक कुशल मंत्री के गुण बताए गए हैं। ऐसे गुणों वाले मंत्री कभी किसी से तिरस्कृत या पराजित नहीं होते।
य इच्छत्यात्मनः श्रेयः प्रभूतानि सुखानि च।
न कुर्यादहितं कर्म स परेभ्यः कदापि च ।।7।।
प्रसङ्ग– प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भाग : ‘ में संकलित पाठ ‘सूक्तयः’ से उद्धृत है। यह श्लोक ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस श्लोक में मनुष्य के कल्याण एवं सुख प्राप्त करने के बारे में बताया गया है।
व्याख्या – जो (व्यक्ति) अपने कल्याण तथा अत्यधिक सुखों की इच्छा करता है, वह दूसरों का अहित करने वाले कर्म कभी न करे।
भावार्थ- यदि हम अपना कल्याण चाहते हैं तथा चाहते हैं कि हम सदा सुखी रहें तो हमें ऐसे कर्म करने चाहिए जो दूसरों के लिए भी हितकर हों। केवल अपना लाभ सोचकर दूसरों के लिए बुरा कर्म करने वाले को उसका कुफल अवश्य भोगना पड़ता है।
आचारः प्रथमो धर्म: इत्येतद् विदुषां वचः।
तस्माद् रक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योऽपि विशेषतः ।।8।।
प्रसङ्ग- प्रस्तुत श्लोक संस्कृत विषय की पाठ्य-पुस्तक ‘शेमुषी द्वितीयो भागः’ में संकलित पाठ ‘सूक्तयः’ से उदृधृत है। यह श्लोक ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से संकलित किया गया है। इस श्लोक में सदाचार का महत्त्व बताया गया है।
व्याख्या- ” आचरण सबसे पहला धर्म है ” ऐसा विद्वानों का वचन (विचार) है। इसलिए सदाचार की रक्षा प्राणों से भी अधिक विशेष रूप से करनी चाहिए ।
भावार्थ- शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म उसका सद् आचरण है। इसलिए हमें अपना आचरण सदैव सही रखना चाहिए। अपने आचरण की रक्षा के लिए अगर मृत्यु का भी सामना करना पड़े तो हमें सदैव इसके लिए तैयार रहना चाहिए ।
Leave a Reply